आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में कीटनाशक एंडोसल्फान की विक्रय और उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने के निर्देश केंद्र और राज्य सरकारों को जारी कर दिए हैं। दुनिया के लगभग 82 देशों में इस पर पूर्ण प्रतिबंध है। एक अकेले एंडोसल्फान की क्या बात करें, तमाम कीटनाशकों का नासमझी भरा प्रयोग जीव-जंतुओं और पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। हमें ज्यादा कमाई के लिए ज्यादा उत्पादन चाहिए। ज्यादा उत्पादन के लिए हम कितना भी खर्चा कर सकते हैं, जेब में न हो तो कर्ज लेकर भी कर सकते हैं। हमारे खेत, फसल और किसान पूरी तरह से घातक रसायनों में ही डूबे हुए हैं। हमारे यहां एक हेक्टेयर में 600 से 800 किलोग्राम रासायनिक उर्वरक तथा 7 से 10 लीटर रासायनिक कीटनाशक छिड़के जा रहे है। रसायनों का भारत में औसत उपयोग 94.5 किलो है, जबकि पंजाब 209.60 किलो और आंध्रप्रदेश 219.48 तथा तमिलनाडु 186.68 किलो रसायनों का छिड़काव करते हैं।
दरअसल ये शुरूआत तो 70 के दशक से हरित क्रांति नाम पर हुई, जिसने हमें उन्नत बीज, रासायनिक पदार्थ और ट्रेक्टर-थ्रेशर जैसी मशीन आधारित तकनीकें दी पर भारतीय किसान और सरकार से यह निर्णय करने का अधिकार छीन लिया कि वह कैसे खेती करना चाहते हैं। इस तकनीकि उन्नति ने किसानों को उनकी सालाना आय से चार गुना ज्यादा कर्जदार कर दिया है और उसके खेतों का उपजाऊपन भी छीन लिया है। आज किसान जिस स्थिति में पहुंच गया है उसे खेती का संकटकाल कहा जा सकता है। आज वह पारम्परिक, कम ऊर्वरक, कम कीटनाशक और कम पानी वाली फसलों को छोड़कर नकद फसलों के मकडज़ाल में फस गया है, इसका एक प्रमाण तो यह है कि जहां 1991 में किसान पर औसत कर्ज ढाई हजार रूपये था वह आज बढ़कर 35 हजार रूपये के पार जा चुका है।
सवाल यह है कि आखिर हमें किस कीमत पर फसलें चाहिएं? अपनी जान की कीमत पर या बैंक और साहूकारों के यहां खुद को गिरवी रख कर? ईमानदारी भरा जवाब तो यह है कि हमें और हमारे कृषि वैज्ञानिकों तथा खेती के लिए योजनाएं बनाती सरकार किसी को भी नहीं मालूम कि होना क्या चाहिए। कीटनाशकों का इस्तेमाल बिना विकल्पों के छोड़ा नहीं जा सकता और जो विकल्प हैं वे या तो आजमाए हुए नहीं हैं या भरोसे के लायक नहीं हैं। किसान आज इन स्थितियों से बाहर निकलना भी चाहे तो आर्थिक परेशानियां, सरकारी नीतियां और बाजार का दबाव उसे निकलने नहीं देगा। एक राजस्थानी कहावत की अर्थ यह है कि विधवा तो किसी तरह अपना समय गुजार भी ले पर समाज के दुश्चरित्र लोग उसे ऐसा करने नहीं देते।
दरअसल ये शुरूआत तो 70 के दशक से हरित क्रांति नाम पर हुई, जिसने हमें उन्नत बीज, रासायनिक पदार्थ और ट्रेक्टर-थ्रेशर जैसी मशीन आधारित तकनीकें दी पर भारतीय किसान और सरकार से यह निर्णय करने का अधिकार छीन लिया कि वह कैसे खेती करना चाहते हैं। इस तकनीकि उन्नति ने किसानों को उनकी सालाना आय से चार गुना ज्यादा कर्जदार कर दिया है और उसके खेतों का उपजाऊपन भी छीन लिया है। आज किसान जिस स्थिति में पहुंच गया है उसे खेती का संकटकाल कहा जा सकता है। आज वह पारम्परिक, कम ऊर्वरक, कम कीटनाशक और कम पानी वाली फसलों को छोड़कर नकद फसलों के मकडज़ाल में फस गया है, इसका एक प्रमाण तो यह है कि जहां 1991 में किसान पर औसत कर्ज ढाई हजार रूपये था वह आज बढ़कर 35 हजार रूपये के पार जा चुका है।
सवाल यह है कि आखिर हमें किस कीमत पर फसलें चाहिएं? अपनी जान की कीमत पर या बैंक और साहूकारों के यहां खुद को गिरवी रख कर? ईमानदारी भरा जवाब तो यह है कि हमें और हमारे कृषि वैज्ञानिकों तथा खेती के लिए योजनाएं बनाती सरकार किसी को भी नहीं मालूम कि होना क्या चाहिए। कीटनाशकों का इस्तेमाल बिना विकल्पों के छोड़ा नहीं जा सकता और जो विकल्प हैं वे या तो आजमाए हुए नहीं हैं या भरोसे के लायक नहीं हैं। किसान आज इन स्थितियों से बाहर निकलना भी चाहे तो आर्थिक परेशानियां, सरकारी नीतियां और बाजार का दबाव उसे निकलने नहीं देगा। एक राजस्थानी कहावत की अर्थ यह है कि विधवा तो किसी तरह अपना समय गुजार भी ले पर समाज के दुश्चरित्र लोग उसे ऐसा करने नहीं देते।
-भू-मीत, १५ सितम्बर-१६ अक्तूबर का सम्पादकीय
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