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Thursday, September 6, 2012

स्वास्थ्य-दशा सुधार अपेक्षित

हालांकि विगत कुछ वर्षों में भारतीय स्वास्थ्य की दशा में कुछ सुधार हुआ है। शिशु व मातृत्व मृत्यु दर में कमी आई है। कई गंभीर बीमारियों पर काबू पा लिया गया है और जीवन प्रत्याशा में भी वृद्धि हुई है। मगर इन उपलब्धियों के बाद भी देश का एक बड़ा हिस्सा, विशेषकर ग्रामीण भारत आज भी उचित स्वास्थ्य देखरेख से वंचित है। भौतिकवादी सुख सुविधाओं के प्रसार तथा आरामपरस्त जीवन शैली के कारण किसी जमाने की खालिस शहरी बीमारियां कैंसर, हृदय रोग और मधुमेह अब ग्रामीणों को अपने जाल में ले चुकी हैं।
गत वर्षों के दौरान भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन बढ़ती जनसंख्या पर काबू न रहने के कारण हम इस क्षेत्र में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66 प्रतिशत की। इस दौरान अस्पताल में बिस्तरों की संख्या एक हजार की जनसंख्या के पीछे मात्र 5.1 प्रतिशत ही बढ़ी है। देश के अस्पतालों में औसत  प्रति हजार जनसंख्या पर बिस्तर की उपलब्धता 0.86 है जो कि विश्व औसत का मात्र एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही रोगी-बिस्तर वर्ष भर खाली पड़े रह जाते हैं जिनकी वजह से वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।
यह आंकड़े भी हमारी राष्ट्रीय औसत के हैं ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72 प्रतिशत आबादी है, उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वहां बिस्तरों की संख्या देश के अस्पतालों में उपलब्ध बिस्तरों का मात्र 19 प्रतिशत तथा चिकित्साकर्मियों का 14 प्रतिशत ही है। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेन्द्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केन्द्रों में 62 प्रतिशत विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49 प्रतिशत प्रयोगशाला सहायकों और 20 प्रतिशत फार्मासिस्टों की कमी है। इस भारी कमी के पीछे दो मुख्य कारण हैं। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं और दूसरा, सीमित अवसरों और सुविधाओं के आभाव के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवक्तायुक्त चिकित्सा सेवा नहीं मिलती और उन्हें नीम-हकीमों या निजी क्षेत्र की शरण में जाने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इसके विपरीत राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार देश के 68 प्रतिशत लोग सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की तुलना में अत्यधिक महंगी निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं। वहीं दूसरी तरफ महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर क़र्ज़ लेता है। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41 प्रतिशत भर्ती होने वाले और 17 प्रतिशत वाह्य रोगी क़र्ज़ लेकर इलाज करवाते हैं।
ग्रामीणों को सस्ता और जवाबदेह इलाज उपलब्ध करवाने के लिए 12 अप्रैल 2005 से 18 राज्यों के लिए 2012 तक के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन शुरूआत की गई। मिशन से ऐसी स्वास्थ्य सुविधाओं की उम्मीद थी, जो सस्ती, पहुंच के भीतर और उत्तरदायी हो। एनआरएचएम का मकसद खराब स्वास्थ्य सुविधाओं वाले राज्यों में स्वास्थ्य के आधारभूत ढांचे की कमियों को दूर करने का था। डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा किया जाना था। स्वास्थ्य केंद्र खोलने के साथ-साथ दवाइयों और उपकरणों की बेहतर आपूर्ति पर भी काफी जोर था, लेकिन यह मिशन इन कसौटियों पर खरा नहीं उतर सका और बाकी सरकारी योजनाओं की तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया।

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