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Sunday, October 28, 2012

सहकारिता का भविष्य

गुजरात और कुछ हद तक महाराष्ट्र को छोड़कर समूचे उत्तर भारत में सहकारिता आन्दोलन पर नजर डालें तो सहकारिता का अर्थ कुछ और ही दिखता है। बिहार और मध्यप्रदेश से लेकर हरियाणा, राजस्थान और पंजाब तक फैली आखिरी सांस लेती चीनी, रूई और तेल मिलें, लगातार बंद होते सहकारी बाजार और करोड़ों का घाटा देते सहकारी बैंक ऐसे लगते हैं जैसे वर्षों पहले मर चुकी सहकारिता के मजार हों। इन सबके बावजूद दिल्ली के सबसे मंहगे इलाके सीरी फोर्ट में एन.सी.डी.सी., एन.सी.यू.आई. जैसे दो दर्जन कार्यालय पूरी शानो-शौकत से पता नहीं किस वजह से खड़े हैं। सहकारिता की ये ऊंची-ऊंची इमारतें शायद इस बात की गवाह हैं कि नेता और अफसर न होते तो सरकारी मदद पर जिन्दा रहने वाली सहकारिता कभी भी इतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच जाती।
उत्तर भारत की सहकारिता को अगर नेताओं और अधिकारियों की सहकारिता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। किसी जिले के छोटे से सहकारी बैंक में भी अगर निदेशक का पद मिल गया तो उनकी सात पीढिय़ों के तक के वारे-न्यारे हो जाते हैं। घाटा होता है तो राहत पैकेज देने के लिए सरकार तैयार बैठी है। यही वजह है कि हमारे सभी नेताओं को सहकारिता में टांग फसाना बहुत ज्यादा पसंद है। एक बार कोई पद मिल जाए तो उसके बाद किसी भी चुनाव में हार-जीत की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं रहता। दफ्तर मिला हुआ है, ए.सी. लगा हुआ है, गाडिय़ां दौड़ रही हैं और भत्ते पक रह हैं। यही वजह है कि सहकारिता भ्रष्ट नेताओं की नर्सरी बनी हुई है। भले ही इसमें लिज्जत उद्योग जैसी ईमानदारी और कार्यकुशलता हो न हो, उसके पापड़ जैसा स्वाद जरूर है।
इस बात की ताइद तो इफको के प्रबंध निदेशक उदयशंकर अवस्थी भी करते हैं, उनका कहना है कि- सहकारिता में अभी भी 19 वीं सदी के व्यापार मॉडल का पालन हो रहा है, जिसे कचरा-पेटी में डालने की जरूरत है। आज के युग में रुपए की अस्थिरता, बैंक ऋण नीति, अस्थिर कमोडिटी कीमतें, किसानों के लिए नवीन उत्पाद खरीदना आदि अनेक चुनौतियों के होते केवल सामरिक खरीदी और अत्याधुनिक योजना से ही कोई सहकारी संस्थान लाभ के अनुपात को बनाए रखने में सफल हो सकता है।

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