जीन संशोधित फसलों से जुड़े विवाद उतने ही पुराने हैं जितनी पुरानी ये फसलें हैं। एक बार फिर से जीन संशोधित फसलों के सुर्खियों में आने की वजह देश की शीर्ष अदालत की पहल है। एक जनहित याचिका जिसमें जी.एम. फसलों के खेत-परीक्षणों पर रोक लगाने की मांग की गई थी क्योंकि इससे पर्यावरण व जीव-जंतुओं पर नकारात्मक प्रभाव पडऩे की आशंका जताई गई थी। इस पर संज्ञान लेते हुए शीर्ष अदालत ने पड़ताल हेतु अपनी ओर से तकनीकी विशेषज्ञों की कमेटी गठित करने के आदेश भी दिये। इस विशेषज्ञ समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में जीन संशोधित फसलों के खेत-परीक्षण पर रोक लगाने की सिफारिश की है।
इससे पहले भी एक संयुक्त संसदीय समिति ने सरकार से आग्रह किया था कि जब तक जी.ए. फसलों का प्रयोग निरापद सिद्ध नहीं हो जाता है तब तक इसके प्रयोगों को स्थगित कर दिया जाएं। वास्तव में जी.एम. फसलों को लेकर बहुत से विवाद सामने आते रहे हैं जिनके चलते पर्यावरणविद् व स्वयंसेवी संगठन इसके क्रियान्वयन का मुखर विरोध भी करते रहे हैं। सामान्य तौर पर जीन संशोधित फसलों का विरोध मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभावों की आशंका के चलते किया जाता रहा है। इसी तरह पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीø टीø बैंगन के मुद्दे पर वर्ष 2010 में देशव्यापी बहस को जन्म दिया था तब कई स्वयंसेवी संगठनों ने खासा विरोध जताया था। यहां मजेदार बात यह है कि देश के अटार्नी जनरल जीø ईø वाहनवती सुप्रीम कोर्ट में जीøएमø फसलों के पक्ष में वकालत कर रहे थे जो कि पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की मुहिम के विपरीत था।
ब्रिटेन में हुए कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि जीन संशोधित फसलों से वन्य जीवों को कई तरह के नुकसान उठाने पड़ते हैं। तीन साल तक चले एक अध्ययन के अनुसार जीन संशोधित चुकंदर व रेपसीड की फसलों से ज़मीन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे खेतों के आसपास मक्खियों व तितलियों आदि की संख्या में अप्रत्याशित कमी आई है। यही वजह है कि एक हालिया सर्वेक्षण में ब्रिटेन के अधिकांश लोग व्यावसायिक स्तर पर जीन संशोधित फसलें उगाये जाने के खिलाफ हो रहे हैं।
जीन संशोधित फसलों के समर्थकों की भी कमी नहीं है जिनके पास इसके समर्थन में मजबूत तर्क हैं। उनकी दलील है कि संयुक्त राज्य अमेरिका जहां मानवीय स्वास्थ्य की रक्षा हेतु उच्च मानक निर्धारित हैं, वहां जीन संशोधित फसलों का बखूबी उपयोग किया जाता है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यहां फसलों की पैदावार में गिरावट दर्ज की जा रही है जो तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिए पर्याप्त खाद्यान्न आपूर्ति में सक्षम नहीं हो सकती। इसके अलावा हमने हरित-क्रांति के लक्ष्यों को हासिल करने के बाद भी अपनी तेजी से बढ़ती जनसंख्या का पेट नहीं भर पा रहे हैं। ऐसे में जीन संशोधित फसलों के जरिये खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है जिससे न केवल उत्पादकता बढ़ेगी बल्कि किसानों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। वे पंजाब में बी.टी. कॉटन को सफल उदाहरण मानते हैं। भारत में जी.एम. फसलों का विरोध कुछ ऐसी संस्थाएं भी करती हैं जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ब्लैकमेल करने के लिए बदनाम हैं। देश में ऐसे भी कुछ लोग हैं जो हर तरक्की के पैदायशी विरोधी हैं, उनके पास किसी समस्या का समाधान भी नहीं होता।
भारत सरकार ने विषय-विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी का गठन किया है, जिसका काम जी.एम. फसलों के प्रायोगिक इस्तेमाल करना है ताकि आम किसानों के लिए जीन संशोधित फसलों का उपयोग निरापद बनाया जा सके। वहीं दूसरी ओर इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च और कृषि विश्वविद्यालय अपने स्तर पर जी.एम. फसलों पर शोध कर रहे हैं। वास्तव में इनके उपयोग का फैसला हमें वैज्ञानिकों पर छोड़ देना चाहिए।
इससे पहले भी एक संयुक्त संसदीय समिति ने सरकार से आग्रह किया था कि जब तक जी.ए. फसलों का प्रयोग निरापद सिद्ध नहीं हो जाता है तब तक इसके प्रयोगों को स्थगित कर दिया जाएं। वास्तव में जी.एम. फसलों को लेकर बहुत से विवाद सामने आते रहे हैं जिनके चलते पर्यावरणविद् व स्वयंसेवी संगठन इसके क्रियान्वयन का मुखर विरोध भी करते रहे हैं। सामान्य तौर पर जीन संशोधित फसलों का विरोध मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभावों की आशंका के चलते किया जाता रहा है। इसी तरह पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीø टीø बैंगन के मुद्दे पर वर्ष 2010 में देशव्यापी बहस को जन्म दिया था तब कई स्वयंसेवी संगठनों ने खासा विरोध जताया था। यहां मजेदार बात यह है कि देश के अटार्नी जनरल जीø ईø वाहनवती सुप्रीम कोर्ट में जीøएमø फसलों के पक्ष में वकालत कर रहे थे जो कि पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की मुहिम के विपरीत था।
ब्रिटेन में हुए कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि जीन संशोधित फसलों से वन्य जीवों को कई तरह के नुकसान उठाने पड़ते हैं। तीन साल तक चले एक अध्ययन के अनुसार जीन संशोधित चुकंदर व रेपसीड की फसलों से ज़मीन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे खेतों के आसपास मक्खियों व तितलियों आदि की संख्या में अप्रत्याशित कमी आई है। यही वजह है कि एक हालिया सर्वेक्षण में ब्रिटेन के अधिकांश लोग व्यावसायिक स्तर पर जीन संशोधित फसलें उगाये जाने के खिलाफ हो रहे हैं।
जीन संशोधित फसलों के समर्थकों की भी कमी नहीं है जिनके पास इसके समर्थन में मजबूत तर्क हैं। उनकी दलील है कि संयुक्त राज्य अमेरिका जहां मानवीय स्वास्थ्य की रक्षा हेतु उच्च मानक निर्धारित हैं, वहां जीन संशोधित फसलों का बखूबी उपयोग किया जाता है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यहां फसलों की पैदावार में गिरावट दर्ज की जा रही है जो तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिए पर्याप्त खाद्यान्न आपूर्ति में सक्षम नहीं हो सकती। इसके अलावा हमने हरित-क्रांति के लक्ष्यों को हासिल करने के बाद भी अपनी तेजी से बढ़ती जनसंख्या का पेट नहीं भर पा रहे हैं। ऐसे में जीन संशोधित फसलों के जरिये खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है जिससे न केवल उत्पादकता बढ़ेगी बल्कि किसानों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। वे पंजाब में बी.टी. कॉटन को सफल उदाहरण मानते हैं। भारत में जी.एम. फसलों का विरोध कुछ ऐसी संस्थाएं भी करती हैं जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ब्लैकमेल करने के लिए बदनाम हैं। देश में ऐसे भी कुछ लोग हैं जो हर तरक्की के पैदायशी विरोधी हैं, उनके पास किसी समस्या का समाधान भी नहीं होता।
भारत सरकार ने विषय-विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी का गठन किया है, जिसका काम जी.एम. फसलों के प्रायोगिक इस्तेमाल करना है ताकि आम किसानों के लिए जीन संशोधित फसलों का उपयोग निरापद बनाया जा सके। वहीं दूसरी ओर इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च और कृषि विश्वविद्यालय अपने स्तर पर जी.एम. फसलों पर शोध कर रहे हैं। वास्तव में इनके उपयोग का फैसला हमें वैज्ञानिकों पर छोड़ देना चाहिए।
Awesome work.Just wanted to drop a comment and say I am new to your blog and really like what I am reading.Thanks for the share
ReplyDeleteThe Terah Taali dance is a true spectacle! With thirteen cymbals tied to various parts of their bodies, the performers create intricate rhythms by striking them, captivating the audience with their skill and agility Rajasthan ke Lok Nritya
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