हम सब जानते हैं कि हमारे खेतों में डाले जाने वाले कीटनाशक दुनिया के तेजतरीन जहर होते हैं। इनमें से कुछ तो इतने खतरनाक हैं कि जिन्हें महज सूंघने भर से मौत हो सकती है। इन कीटनाशकों के लगातर इस्तेमाल से कीट-पतंगों में प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो गई है, इसलिए इन जहरीली दवाओं को और तेज, और मारक और खतरनाक बनाया जा रहा है। सवाल यह नहीं है कि हम इस जहर को और कितना तेज बनाएंगे, बल्कि यह है कि इसे बेच कौन रहा है? गांव में इन जानलेवा रसायनों को खाद-बीज के व्यापरियों के अलावा राशन बेचने वाले वो दुकानदार भी बेच रहे हैं, जो इनके घातक परिणामों के बारें में कुछ नहीं जानते। बात यहीं खत्म हो जाए तो भी ठीक नहीं है पर इससे भी चार कदम आगे चली जाए तो साक्षात यमराज के दरवाजे पर दस्तक दे सकती है। कीटनाशक बेचते-बेचते ये लगभग अनपढ़ दुकानदार वैज्ञानिक भी हो जाते हैं, ये किसानों को दो या चार दवाएं मिलाकर छिड़कने की सलाह भी देने लगते हैं। हालांकि दवाइयों के साथ कई भाषाओं में छपे चेतावनी और इस्तेमाल के तरीको के पर्चे आते हैं, लेकिन ये इतने छोटे-छोटे और अस्पष्ठ अक्षरों में छपे होते हैं कि इन्हें पढऩा लगभग नामुमकिन है।
विडम्बना देखिए कि हमारे देश का औषधि नियंत्रण कानून भी इन्सानों और पशुओं की दी जाने वाली उन दवाइयां तक ही सीमित जिन्हें खाकर भी इन्सान तुरंत मरता नहीं है। आश्चर्य यह है कि इन दवाओं को बेचने के लिए फार्मास्सिट की डिग्री लेनी पड़ती है, जबकि घातक जहर बेचने वालों को कृषि विभाग का उपनिदेशक कार्यालय विक्रय लाइसेंस महज कुछ ही रुपयों में जारी कर देता है, और यह भी नहीं पूछता कि विक्रय लाइसेंस लेने वाला कभी स्कूल भी गया है या नहीं? यह सब उसी देश में हो रहा है जहां बिना डॉक्टर की पर्ची दवा बेचना तक जुर्म है। यह अलग बात है कि गावं का झोलाछाप डॉक्टर की दवा की पुडिय़ा में पता नहीं क्या डाल कर खिला रहा है?
अनाडिय़ों की ये जमात महज गांव तक ही सीमित नहीं है। छोटी-बड़ी मिलाकर 300 से ज्यादा कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों के पास देश भर में हजारों सेल्समैन हैं जिनमें ज्यादातर कला, वाणिज्य या विज्ञान के स्नातक हैं। विक्रय प्रतिनिधियों की इस फौज को अपने-अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के अलावा कोई दूसरा रसायनिक ज्ञान नहीं है। हालांकि कुछ कम्पनियां इस नौकरी के लिए बीएससी एग्रीकल्चर को प्राथमिकता देती हैं, पर दुर्भाग्य से वे ही लोग इस व्यवसाय को चुनते हैं जिन्हें कोई दूसरा ढ़ंग का काम नहीं मिलता।
सार यह है कि इस बेहद घातक और खतरनाक व्यापार की बागडोर कम से कम निचले स्तर पर तो शत प्रतिशत अनाड़ी हाथों में है। इस कारोबार और हमारी खेती-बाड़ी के भविष्य का एक सहज अनुमान केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि इस जहर को बेचने और इस्तेमाल करने वाले दोनो पक्ष ही नासमझ हैं।
विडम्बना देखिए कि हमारे देश का औषधि नियंत्रण कानून भी इन्सानों और पशुओं की दी जाने वाली उन दवाइयां तक ही सीमित जिन्हें खाकर भी इन्सान तुरंत मरता नहीं है। आश्चर्य यह है कि इन दवाओं को बेचने के लिए फार्मास्सिट की डिग्री लेनी पड़ती है, जबकि घातक जहर बेचने वालों को कृषि विभाग का उपनिदेशक कार्यालय विक्रय लाइसेंस महज कुछ ही रुपयों में जारी कर देता है, और यह भी नहीं पूछता कि विक्रय लाइसेंस लेने वाला कभी स्कूल भी गया है या नहीं? यह सब उसी देश में हो रहा है जहां बिना डॉक्टर की पर्ची दवा बेचना तक जुर्म है। यह अलग बात है कि गावं का झोलाछाप डॉक्टर की दवा की पुडिय़ा में पता नहीं क्या डाल कर खिला रहा है?
अनाडिय़ों की ये जमात महज गांव तक ही सीमित नहीं है। छोटी-बड़ी मिलाकर 300 से ज्यादा कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों के पास देश भर में हजारों सेल्समैन हैं जिनमें ज्यादातर कला, वाणिज्य या विज्ञान के स्नातक हैं। विक्रय प्रतिनिधियों की इस फौज को अपने-अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के अलावा कोई दूसरा रसायनिक ज्ञान नहीं है। हालांकि कुछ कम्पनियां इस नौकरी के लिए बीएससी एग्रीकल्चर को प्राथमिकता देती हैं, पर दुर्भाग्य से वे ही लोग इस व्यवसाय को चुनते हैं जिन्हें कोई दूसरा ढ़ंग का काम नहीं मिलता।
सार यह है कि इस बेहद घातक और खतरनाक व्यापार की बागडोर कम से कम निचले स्तर पर तो शत प्रतिशत अनाड़ी हाथों में है। इस कारोबार और हमारी खेती-बाड़ी के भविष्य का एक सहज अनुमान केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि इस जहर को बेचने और इस्तेमाल करने वाले दोनो पक्ष ही नासमझ हैं।
No comments:
Post a Comment