बीज विधेयक, 2010 संसद के मौजूदा सत्र में पुराने विधेयक, 2004 की जगह लेने के लिए तैयार है। माना जा रहा है कि यह विधेयक किसानों के बजाय बीज व्यवसायियों के हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इसके पक्ष में तर्क यह दिए जा रहे हैं कि भारत का बीज-बाजार बहुत बड़ा है। देश में लगभग 38 करोड़ एकड़ भूमि पर खेती होती है, जिसमें एक-तिहाई सिंचित भूमि पर दो फसलें ली जाती है। यानी प्रति वर्ष 50 करोड़ एकड़ के लिए बीज चाहिए। यदि एक एकड़ के लिए एक हजार रुपए का बीज भी खरीदना पड़े तो यह आंकड़ा 50 हजार करोड़ के पार होगा। अभी तक इन कंपनियों की पहुंच मात्र 10 प्रतिशत किसानों तक ही है। इल्जाम लगाए जा रहे हैं कि इन कंपनियों की नजर देश के शेष 90 प्रतिशत किसानों पर है और यह कानून इसमें उनकी मदद करेगा।
किसान मोर्चे के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ का सवाल है कि जब देश में बीज व्यवसाय के लिए चार कानून पहले से मौजूद है, तो क्या वर्तमान कानून उन चारों को बाईपास करते हुए बीज कंपनियों को लाभ और किसानों को घाटा पहुंचाने के लिए लाया जा रहा है? एक तरफ जहां बीज बेचने वाली कंपनियां पहले ही आकाश छूती कीमतों के सहारे भरपूर मुनाफा कमा रही हैं वहीं बीज विधेयक में बीजों के खुदरा मूल्य या बड़े कारपोरिट्स की कुल रॉयल्टी को निर्धारित करने के लिए कोई प्रावधान नहीं किए गए हैं।
इस विधेयक पर पहले संसदीय स्थायी समिति फिर सर्वदलीय बैठक में विचार-विमर्श में और फिर कई किसान संगठनों, विपक्षी राजनीतिक दल तथा नागरिक संगठनों ने भी आक्रोश जताया है कि यह विधेयक छोटे और सीमांत किसानों के हितों की रक्षा करने में असफल रहेगा। यहां तक कि यूपीए अध्यक्ष की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद(एनएसी) के कई सदस्यों ने भी इस विधेयक के किसान-विरोधी प्रावधानों का खुलेआम विरोध किया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिशकुमार ने यह कहकर अपना विरोध प्रकट किया है कि विधेयक में राज्यों को बीज के उत्पादन, वितरण, विपणन या फिर उनके बाजार-मूल्य को निर्धारित करने के मामले में कोई अधिकार नहीं दिया गया है। मौजूदा बीज विधेयक के लिए विरोधियों कुछ सुझाव भी दिए हैं जैसे-
किसान मोर्चे के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ का सवाल है कि जब देश में बीज व्यवसाय के लिए चार कानून पहले से मौजूद है, तो क्या वर्तमान कानून उन चारों को बाईपास करते हुए बीज कंपनियों को लाभ और किसानों को घाटा पहुंचाने के लिए लाया जा रहा है? एक तरफ जहां बीज बेचने वाली कंपनियां पहले ही आकाश छूती कीमतों के सहारे भरपूर मुनाफा कमा रही हैं वहीं बीज विधेयक में बीजों के खुदरा मूल्य या बड़े कारपोरिट्स की कुल रॉयल्टी को निर्धारित करने के लिए कोई प्रावधान नहीं किए गए हैं।
इस विधेयक पर पहले संसदीय स्थायी समिति फिर सर्वदलीय बैठक में विचार-विमर्श में और फिर कई किसान संगठनों, विपक्षी राजनीतिक दल तथा नागरिक संगठनों ने भी आक्रोश जताया है कि यह विधेयक छोटे और सीमांत किसानों के हितों की रक्षा करने में असफल रहेगा। यहां तक कि यूपीए अध्यक्ष की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद(एनएसी) के कई सदस्यों ने भी इस विधेयक के किसान-विरोधी प्रावधानों का खुलेआम विरोध किया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिशकुमार ने यह कहकर अपना विरोध प्रकट किया है कि विधेयक में राज्यों को बीज के उत्पादन, वितरण, विपणन या फिर उनके बाजार-मूल्य को निर्धारित करने के मामले में कोई अधिकार नहीं दिया गया है। मौजूदा बीज विधेयक के लिए विरोधियों कुछ सुझाव भी दिए हैं जैसे-
1. ब्रांडिड बीजों के इस्तेमाल के बाद फसल मारी जाए तो किसानों को दिए जाना वाला मुआवजा अधिकतम मात्र 30 हजार रुपए है। जबकि मुआवजा उन बीजों से पैदा होने वाली फसल के आधार पर दिया जाना चाहिए। 2. बीज आयात करते समय ध्यान रखा जाए कि देश के विभिन्न इलाकों की मिट्टी और जलवायु के माफिक बैठने वाले बीजों की ही अनुमति हो। बेहतर यह होगा कि आयातित बीजों की पहले स्थानीय भूमि पर जांच कर यह सुनिश्चित किया जाए कि वे न्यूनतम उपज क्षमता के दर्जे पर खरे उतरते हैं या नहीं, इस परीक्षण के बाद ही इन बीजों का उपयुक्तता के आधार पर प्रमाणीकरण किया जाए।
3. देश में अधिकतर बीज-बैंक स्व-सहायता समूहों के द्वारा चलाये जा रहे हैं। विधेयक में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि इन बीज-बैंकों का संबंध कृषि-विज्ञान केंद्रों, कृषि-विश्वविद्यालयों, आइसीएआर और राज्यों के वित्त संस्थाओं से इस तरह बने कि इन्हें आधार बीज, तकनीकी सहायता और कार्यशील पूंजी राज्य सरकारों से हासिल हो। कृषि-विज्ञान केंद्रों से जुड़े बीज-बैंकों को बीज-व्यवसाय में उतरने के लिए प्रमाणीकरण जैसी औपचारिकताओं से भी मुक्त रखा जाए।
सिक्के के इस एक पहलू पर विचार करने के बाद अब नजर डालते हैं उसके दूसरे पहलू पर। बीज व्यवसायी चाहे देशी हों या इन देशी व्यापारियों की साझेदारी में विदेशी कंपनियां हो, इनका एकमात्र मकसद लाभ कमाना है। अब यह दीगर बात है कि कुछ ही कंपनियां इस लाभ का बड़ा हिस्सा अपनी साख के लिए शोध एवं अनुसंधान पर खर्च करती हैं। जबकि देशी कंपनियों की लम्बी फेहरिश्त में शायद ही कोई ऐसी हो जिसके पास शोध और अनुसंधान के लिए अपनी मूलभूत सुविधाएं हों। उनके कर्मिकों में वैज्ञानिक की नियुक्ति तो बहुत दूर की बात है इन कंपनियों के पास साधारण एम. एससी योग्यता वाला कोई एक आदमी तक नहीं होता, उस पर दावा यह कि जो बीज बेच रहे हैं वह उनकी अपनी शोध का परिणाम हैं। यह बीज विधेयक ऐसी तमाम बीज कंपनियों की दुकान बंद करवा देगा जो अपनी शोध से तैयार बीज नहीं बेचेंगे। यह ठीक है कि मंहगे बीज के बाद अगर फसल न उगे तो किसान का ही नहीं देश का भी नुकसान होता है, नए बिल में बीज के साथ जिस मामूली राशि का प्रावधान है उसके संबंध में मांग यह की जा रही है कि किसान को बीज नहीं उगने पर कुल संभावित उपज की राशि जितना मुआवजा मिलना चाहिए। अच्छा रहे यदि इस मांग में यह बात भी शामिल कर दी जाए कि मुआवजा निजी बड़ी कंपनियों के साथ-साथ सरकारी एजेंसियां और क्षेत्रीय बीज कंपनियां भी दें।
नया प्रस्तावित विधेयक पर एक आरोप यह भी है कि यह नकली एवं घटियां बीज बेचने वालों के प्रति उदार है, उनके लिए मात्र 25 हजार से एक लाख रुपये तक के जुर्माना का प्रावधान है और झूठी सूचनाएं देकर बीज पंजीकृत कराने वालों पर पांच लाख रुपये तक जुर्माना और एक साल तक की सजा का प्रावधान है। इस बात से सभी सहमत हैं कि यह सजा और जुर्माना कम है, बीज जैसे संवेदनशील उत्पाद के लिए जुर्माना चाहे कम हो पर सजा जरूरी और ज्यादा होनी ही चाहिए। देश में आजकल किसी भी बात का विरोध करना एक आम बात हो गई है, कुछ संस्थाओं और तथाकथित समाज सेवकों ने यह धंधा बना लिया उनसे कोई भी प्रायोजित विरोध करवा सकता है। अत: हर प्रस्ताव के साथ विरोध के दोनों पहलू जांचे और निर्णय अपने विवेक पर छोड़ दें।
सिक्के के इस एक पहलू पर विचार करने के बाद अब नजर डालते हैं उसके दूसरे पहलू पर। बीज व्यवसायी चाहे देशी हों या इन देशी व्यापारियों की साझेदारी में विदेशी कंपनियां हो, इनका एकमात्र मकसद लाभ कमाना है। अब यह दीगर बात है कि कुछ ही कंपनियां इस लाभ का बड़ा हिस्सा अपनी साख के लिए शोध एवं अनुसंधान पर खर्च करती हैं। जबकि देशी कंपनियों की लम्बी फेहरिश्त में शायद ही कोई ऐसी हो जिसके पास शोध और अनुसंधान के लिए अपनी मूलभूत सुविधाएं हों। उनके कर्मिकों में वैज्ञानिक की नियुक्ति तो बहुत दूर की बात है इन कंपनियों के पास साधारण एम. एससी योग्यता वाला कोई एक आदमी तक नहीं होता, उस पर दावा यह कि जो बीज बेच रहे हैं वह उनकी अपनी शोध का परिणाम हैं। यह बीज विधेयक ऐसी तमाम बीज कंपनियों की दुकान बंद करवा देगा जो अपनी शोध से तैयार बीज नहीं बेचेंगे। यह ठीक है कि मंहगे बीज के बाद अगर फसल न उगे तो किसान का ही नहीं देश का भी नुकसान होता है, नए बिल में बीज के साथ जिस मामूली राशि का प्रावधान है उसके संबंध में मांग यह की जा रही है कि किसान को बीज नहीं उगने पर कुल संभावित उपज की राशि जितना मुआवजा मिलना चाहिए। अच्छा रहे यदि इस मांग में यह बात भी शामिल कर दी जाए कि मुआवजा निजी बड़ी कंपनियों के साथ-साथ सरकारी एजेंसियां और क्षेत्रीय बीज कंपनियां भी दें।
नया प्रस्तावित विधेयक पर एक आरोप यह भी है कि यह नकली एवं घटियां बीज बेचने वालों के प्रति उदार है, उनके लिए मात्र 25 हजार से एक लाख रुपये तक के जुर्माना का प्रावधान है और झूठी सूचनाएं देकर बीज पंजीकृत कराने वालों पर पांच लाख रुपये तक जुर्माना और एक साल तक की सजा का प्रावधान है। इस बात से सभी सहमत हैं कि यह सजा और जुर्माना कम है, बीज जैसे संवेदनशील उत्पाद के लिए जुर्माना चाहे कम हो पर सजा जरूरी और ज्यादा होनी ही चाहिए। देश में आजकल किसी भी बात का विरोध करना एक आम बात हो गई है, कुछ संस्थाओं और तथाकथित समाज सेवकों ने यह धंधा बना लिया उनसे कोई भी प्रायोजित विरोध करवा सकता है। अत: हर प्रस्ताव के साथ विरोध के दोनों पहलू जांचे और निर्णय अपने विवेक पर छोड़ दें।
good :-)
ReplyDeleteBahut acha article hai
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