शायद हम सभी को याद है कि गए साल सर्दी 15 दिसम्बर तक नहीं शुरू थी। जब ठण्ड ने अपना असर दिखाना आरम्भ किया तो देरी से आने की सारी कसर निकाल दी। जहां बर्फबारी होती है उन क्षेत्रों में मार्च के अंत तक बर्फ गिर रही है। आधा मार्च बीतने को है पर अब तक रातें बहुत ठण्डी हैं और दिन के मौसम में भी वो तल्खी नहीं आई जो अकसर इन दिनों में आ जाती है। आदमी और जानवर तो इस मौसमी बदलाव को किसी तरह झेल जाते हैं मगर खेत और फसलों के लिए यह बदलाव बर्दाश्त के बाहर होता है। बात केवल सर्दी और गर्मी के तापमान पर आकर ही खत्म नहीं हो जाती इस साल जनवरी-फरवरी महीनों में होने वाली बरसात भी नहीं हुई। मावठ फसलों के लिए अमृत का काम करती इस साल यह अमृत कहीं-कहीं दो चार बूंद भले ही गिरा हो, कमोबेश फसलें प्यासी ही रहीं हैं। इस विषय पर चर्चा करें कि बदलती जलवायु का हमारी खेती पर कितना असर पड़ेगा, उससे पहले थोड़ी सी जानकारी मौसम और जलवायु के बारे में-
क्या फर्क है मौसम और जलवायु में?
अकसर लोग मौसम और जलवायु को एक ही मान लेते हैं। किसी भू-क्षेत्र विशेष की जलवायु का निर्धारण सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए इस गोलाकार पृथ्वी मध्य भाग में जिसे विषुवतीय क्षेत्र कहा जाता है। यहां वर्ष भर सूर्य अपना प्रकाश सीधा डालता है, इसलिए वहां गर्मी ज्यादा पड़ती है। (इसे उष्ण कटिबंध क्षेत्र कहते हैं।) विषुवत रेखा से उत्तर और दक्षिण की ओर सूर्य ताप क्रमश: घटता जाता है। क्योंकि इन क्षेत्रों तक आते-आते सूरज की किरणे तिरछी हो जाती हैं, इसलिए यहां की जलवायु को शीतोषण कहा जाता है। विषुवत रेखा से दोनों ओर अधिकतम दूरी पर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों (गोल पृथ्वी के एकदम उपर और एकदम नीचे वाले हिस्सों में।) पर सूर्य ताप बहुत कम पहुंचता इसलिए वहां बर्फ जमी रहती है। इस स्थिति को वहां की जलवायु माना जाता है। इसके विपरीत मौसम में दैनिक या साप्ताहिक या ऋतु के दो-तीन महिनों के लिए हुए परिर्वतन को कहा जाता है। इंग्लैण्ड का मौसम अपनी तुनकमिजाजी के लिए बदनाम है। वहां का मौसम 24 घंटे में तीन-चार बार बदल जाता है। सुबह धूप है, दोपहर तक बादल हो जाते हैं, शाम को यो तो बरसात हो जाती है या हवा तेज चलती जिससे बादल छितरा जाते हैं। हमारे यहां भी मौसम की ये शरारतें कभी-कभार देखने को मिल जाती हैं। मतलब यह कि मौसम में बदलाव काफी जल्दी होता है लेकिन जलवायु में बदलाव आने में बहुत समय लगता है और इसीलिये यह एकदम दिखाई नहीं देता। बहर-हाल इस आलेख में वैश्विक जलवायु की बात की जा रही है, जो हजारों वर्षों से अपने आदि स्वरूप में चली आ रही है। इसके लाभ किसी से, विशेष रूप से किसानों से छिपे हुए नहीं हैं। साल-दर-साल के अवलोकन के आधार पर किसान को अपने खेती कार्यों के लिए पूर्वानुमान में मदद मिलती थी, और वह उस समय अपनी फसल लेने के प्रयास भी करता था। विगत 150-200 वर्षों में वैज्ञानिक प्रगति की वजह से मौसम विज्ञानी जलवायु के गहन अध्यन में सफल हो कर सटीक भविष्यवाणियां भी करने लगे थे। उसके बावजूद भी यह विषय इतना बड़ा है कि हमारे छोटे से दिमाग की पकड़ में पूरी तरह न तो आया था और न ही निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना है।
हम जानते हैं कि पृथ्वी सूर्य से ताप ग्रहण करती है जिस वजह से धरती की सतह गर्म हो जाती है। धरती की सतह तथा समुद्र के जरिए परावर्तित होकर इस ताप की कुछ मात्रा पुन: वातावरण में मिल जाती है। जब यह ताप वातावरण से होकर गुज़रता है, तो लगभग 30 प्रतिशत वातावरण में ही रह जाता है। वातावरण की कुछ गैसों से पृथ्वी के चारों ओर एक परत बन जाती है तथा वह इस ताप का कुछ भाग सोख भी लेती है। ये गैसें हैं- कार्बन डाइ-ऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व जलकण, जो वातावरण के 1 प्रतिशत से भी कम होते है। इन गैसों को ग्रीन हाउस गैसें भी कहते हैं। जिस प्रकार एक हरे रंग का कांच ताप को अन्दर आने से रोकता है, कुछ उसी प्रकार से ये गैसें, पृथ्वी के ऊपर एक परत बनाकर अधिक ऊष्मा से इसकी रक्षा करती है। इसे ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता है।
वैसे तो ग्रीन हाउस गैसों की परत पृथ्वी पर उत्पत्ति के समय से है। लेकिन विगत अर्द्धशती से हमारे कथित विकास कारनामों से इस प्रकार की अधिकाधिक गैसें वातावरण में जा रही है जिससे यह परत मोटी होती जा रही है इससे प्राकृतिक ग्रीन हाउस का प्रभाव समाप्त हो रहा है। एक ओर तो कार्बन डाइ-ऑक्साइड जो कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस आदि के जलने पर बनती है, की मात्रा दिन प्रति दिन बढ़ती जा रहा है और दूसरी तरफ इन गैसों को अवशोषित करने वाले वृक्षों यानी वनों को हम नष्ट करते जा रहे है। तीसरे खेती में रासायनिक खाद और उर्वरकों में वृद्धि तथा ज़मीन के उपयोग में विविधता व अन्य कई कारणों से वातावरण में मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस का स्राव भी अधिक मात्रा में होता है। चौथे औद्योगिक प्रदूषण से भी ग्रीन हाउस प्रभाव को नष्ट करने वाली नई गैसें जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन वातावरण में स्रावित हो रही है। और पांचवा ऑ:टॅमबील वाहनों से निकलने वाले धुंए और प्लास्टिक के अधिकाधिक उपयोग से हमारी पृथ्वी का ग्रीन हाउस प्रभाव कम होता जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
वैसे जलवायु में परिवर्तन अचानक और इतना अधिक नहीं होता कि सबको प्रत्यक्ष दिखाई देकर चौंका दे। किन्तु विगत 40-50 वर्षों से सूक्ष्म परिर्वतन के लक्षणों एवं आंकड़ो के अध्ययन से यह लगभग प्रमाणित माना जा रहा है कि सकल वैश्विक तापमान में 03 से 06 डिग्री की वृद्धि हुई है। तापमान में यह वृद्धि हमें मामूली लग सकती हैं लेकिन यह भविष्य में महाविनाश का कारण बन सकती है। वैश्विक ताप का मानवीय स्वास्थ्य पर भी सीधा असर होगा, इससे गर्मी, निर्जलीकरण, कुपोषण और संक्रामक बीमारियां बढ़ेंगी। तमाम वन्य तथा जलीय जीव-जन्तु एवं पक्षी जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, भी समाप्ति के कगार पर पहुंच जाएंगे। मौसम गर्म होने से वर्षा का चक्र भी प्रभावित होता है, इससे बाढ़ या सूखे के खतरे के साथ ध्रुवीय ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि हो जाती है, जिसकी वजह से तटीय क्षेत्रों की बर्बादी और नदियों के मुहानों वाले क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। पिछले वर्ष के तूफानों व बवंडरों ने इसके अप्रत्यक्ष संकेत दे दिए हैं।
ये सारे खतरे एक तरफ, पर जलवायु में परिवर्तन का सीधा असर खेती पर होगा, क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की क्षमता, कीटाणु और फैलने वाली बीमारियां अपने सामान्य तरीके से अलग बर्ताव करेगी, जिनका फौरी इलाज हमारी कल्पना में भी नहीं है। सेवा निवृत वरिष्ठ कपास विशेषज्ञ डॉ. आरपी भारद्वाज कहते हैं कि- 'मौसम में बदलाव के बाद हमारे पास उतनी गर्मी या सर्दी में बीजाई करने के लिए एक भी बीज वैरायटी नहीं होगी। बीज कोई ऐसी चीज भी नहीं है जिसका आयात करके काम चला लिया जाए या रातों-रात कारखानों में तैयार कर लिया जाए। एक क्षेत्र विशेष के लिए मौसम के अनुकूल बीज तैयार करने में कम से कम 12-13 साल लगते हैं, इतने साल हम क्या भूखे-नंगे रहेंगे?' डॉ. भारद्वाज कहते हैं कि- 'हमारे कृषि वैज्ञानिकों को अभी से बदलते मौसम पर निगाह रखते हुए आगामी बीजों के बारे में काम करना आरम्भ कर देना चाहिए क्योंकि यह बदलाव का बहुत साफ संकेत है कि पिछेती बिजाई के लिए तैयार बीज मौसम में तबदीली की वजह से अब समय पर बीजने लायक हो गया है।'
हमारे देश में नया बीज तैयार करते समय मौसम संबंधित आंकडे और जानकारी, पानी के बारे में राय देने वाले वैज्ञानिक ही देते हैं। इस बारे में कृषि अनुसंधान के निदेशक और जल प्रबंधन वैज्ञानिक डॉ. बीएस यादव का कहना है कि-'यह खतरे की घंटी हमें भी सुनाई दे रही है, अत: वैज्ञानिकों ने इस पर काम करना आरम्भ कर दिया है। इस साल के मौसम और बरसात को देखते हुए वातावरण में बदलाव के उपयुक्त बीज तैयार करना हमारी प्राथमिकता बन गया है।' मौसम में बदलाव की वजह से पौधों में प्रभाव के बारे में क्या कदम उठाए जा रहे है के बारे में वरिष्ठ शस्य वैज्ञानिक डॉ. पीएल नेहरा का कहना है कि- 'मौसम के बदलाव को रोका नहीं जा सकता पर किसान द्वारा गहरी जुताई और गहरा पानी लगा कर नुकसान को कम जरूर किया जा सकता है।' जलवायु परिवर्तन की वजह से फसलों के होने वाले रोग और नए आने वाले कीटों का क्या असर रहेगा? के जवाब में कीट विशेषज्ञ डॉ. विचित्रसिंह का कहना है कि-'बीमारी और कीडों के बारे वैसे तो कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, पर यह तय है कि गर्मी बढ़ेगी तो इन दोनों का ही प्रकोप कम होगा और अगर बरसात हुई तो बीमारियां और कीड़े बढ़ जाएंगे। अब यह तो समय बताएगा कि किस तरह की परेशानियां उस समय आएंगी। 'इस संबंध में हनुमानगढ़ जिले की संगरिया तहसील के ढाबां गावं के प्रगतिशील किसान कृष्णकुमार जाखड़ की सलाह यह है कि 'किसान पारम्परिक बीजों का इस्तेमाल करे, क्योंकि वही प्रकृतिक रूप से इस आपदा को झेलने में सर्वाधिक सक्षम हैं।'
-प्रवीण दत्ता, जयपुर- राजस्थान ।
क्या फर्क है मौसम और जलवायु में?
अकसर लोग मौसम और जलवायु को एक ही मान लेते हैं। किसी भू-क्षेत्र विशेष की जलवायु का निर्धारण सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए इस गोलाकार पृथ्वी मध्य भाग में जिसे विषुवतीय क्षेत्र कहा जाता है। यहां वर्ष भर सूर्य अपना प्रकाश सीधा डालता है, इसलिए वहां गर्मी ज्यादा पड़ती है। (इसे उष्ण कटिबंध क्षेत्र कहते हैं।) विषुवत रेखा से उत्तर और दक्षिण की ओर सूर्य ताप क्रमश: घटता जाता है। क्योंकि इन क्षेत्रों तक आते-आते सूरज की किरणे तिरछी हो जाती हैं, इसलिए यहां की जलवायु को शीतोषण कहा जाता है। विषुवत रेखा से दोनों ओर अधिकतम दूरी पर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों (गोल पृथ्वी के एकदम उपर और एकदम नीचे वाले हिस्सों में।) पर सूर्य ताप बहुत कम पहुंचता इसलिए वहां बर्फ जमी रहती है। इस स्थिति को वहां की जलवायु माना जाता है। इसके विपरीत मौसम में दैनिक या साप्ताहिक या ऋतु के दो-तीन महिनों के लिए हुए परिर्वतन को कहा जाता है। इंग्लैण्ड का मौसम अपनी तुनकमिजाजी के लिए बदनाम है। वहां का मौसम 24 घंटे में तीन-चार बार बदल जाता है। सुबह धूप है, दोपहर तक बादल हो जाते हैं, शाम को यो तो बरसात हो जाती है या हवा तेज चलती जिससे बादल छितरा जाते हैं। हमारे यहां भी मौसम की ये शरारतें कभी-कभार देखने को मिल जाती हैं। मतलब यह कि मौसम में बदलाव काफी जल्दी होता है लेकिन जलवायु में बदलाव आने में बहुत समय लगता है और इसीलिये यह एकदम दिखाई नहीं देता। बहर-हाल इस आलेख में वैश्विक जलवायु की बात की जा रही है, जो हजारों वर्षों से अपने आदि स्वरूप में चली आ रही है। इसके लाभ किसी से, विशेष रूप से किसानों से छिपे हुए नहीं हैं। साल-दर-साल के अवलोकन के आधार पर किसान को अपने खेती कार्यों के लिए पूर्वानुमान में मदद मिलती थी, और वह उस समय अपनी फसल लेने के प्रयास भी करता था। विगत 150-200 वर्षों में वैज्ञानिक प्रगति की वजह से मौसम विज्ञानी जलवायु के गहन अध्यन में सफल हो कर सटीक भविष्यवाणियां भी करने लगे थे। उसके बावजूद भी यह विषय इतना बड़ा है कि हमारे छोटे से दिमाग की पकड़ में पूरी तरह न तो आया था और न ही निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना है।
हम जानते हैं कि पृथ्वी सूर्य से ताप ग्रहण करती है जिस वजह से धरती की सतह गर्म हो जाती है। धरती की सतह तथा समुद्र के जरिए परावर्तित होकर इस ताप की कुछ मात्रा पुन: वातावरण में मिल जाती है। जब यह ताप वातावरण से होकर गुज़रता है, तो लगभग 30 प्रतिशत वातावरण में ही रह जाता है। वातावरण की कुछ गैसों से पृथ्वी के चारों ओर एक परत बन जाती है तथा वह इस ताप का कुछ भाग सोख भी लेती है। ये गैसें हैं- कार्बन डाइ-ऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व जलकण, जो वातावरण के 1 प्रतिशत से भी कम होते है। इन गैसों को ग्रीन हाउस गैसें भी कहते हैं। जिस प्रकार एक हरे रंग का कांच ताप को अन्दर आने से रोकता है, कुछ उसी प्रकार से ये गैसें, पृथ्वी के ऊपर एक परत बनाकर अधिक ऊष्मा से इसकी रक्षा करती है। इसे ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता है।
वैसे तो ग्रीन हाउस गैसों की परत पृथ्वी पर उत्पत्ति के समय से है। लेकिन विगत अर्द्धशती से हमारे कथित विकास कारनामों से इस प्रकार की अधिकाधिक गैसें वातावरण में जा रही है जिससे यह परत मोटी होती जा रही है इससे प्राकृतिक ग्रीन हाउस का प्रभाव समाप्त हो रहा है। एक ओर तो कार्बन डाइ-ऑक्साइड जो कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस आदि के जलने पर बनती है, की मात्रा दिन प्रति दिन बढ़ती जा रहा है और दूसरी तरफ इन गैसों को अवशोषित करने वाले वृक्षों यानी वनों को हम नष्ट करते जा रहे है। तीसरे खेती में रासायनिक खाद और उर्वरकों में वृद्धि तथा ज़मीन के उपयोग में विविधता व अन्य कई कारणों से वातावरण में मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस का स्राव भी अधिक मात्रा में होता है। चौथे औद्योगिक प्रदूषण से भी ग्रीन हाउस प्रभाव को नष्ट करने वाली नई गैसें जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन वातावरण में स्रावित हो रही है। और पांचवा ऑ:टॅमबील वाहनों से निकलने वाले धुंए और प्लास्टिक के अधिकाधिक उपयोग से हमारी पृथ्वी का ग्रीन हाउस प्रभाव कम होता जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
वैसे जलवायु में परिवर्तन अचानक और इतना अधिक नहीं होता कि सबको प्रत्यक्ष दिखाई देकर चौंका दे। किन्तु विगत 40-50 वर्षों से सूक्ष्म परिर्वतन के लक्षणों एवं आंकड़ो के अध्ययन से यह लगभग प्रमाणित माना जा रहा है कि सकल वैश्विक तापमान में 03 से 06 डिग्री की वृद्धि हुई है। तापमान में यह वृद्धि हमें मामूली लग सकती हैं लेकिन यह भविष्य में महाविनाश का कारण बन सकती है। वैश्विक ताप का मानवीय स्वास्थ्य पर भी सीधा असर होगा, इससे गर्मी, निर्जलीकरण, कुपोषण और संक्रामक बीमारियां बढ़ेंगी। तमाम वन्य तथा जलीय जीव-जन्तु एवं पक्षी जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, भी समाप्ति के कगार पर पहुंच जाएंगे। मौसम गर्म होने से वर्षा का चक्र भी प्रभावित होता है, इससे बाढ़ या सूखे के खतरे के साथ ध्रुवीय ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि हो जाती है, जिसकी वजह से तटीय क्षेत्रों की बर्बादी और नदियों के मुहानों वाले क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। पिछले वर्ष के तूफानों व बवंडरों ने इसके अप्रत्यक्ष संकेत दे दिए हैं।
ये सारे खतरे एक तरफ, पर जलवायु में परिवर्तन का सीधा असर खेती पर होगा, क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की क्षमता, कीटाणु और फैलने वाली बीमारियां अपने सामान्य तरीके से अलग बर्ताव करेगी, जिनका फौरी इलाज हमारी कल्पना में भी नहीं है। सेवा निवृत वरिष्ठ कपास विशेषज्ञ डॉ. आरपी भारद्वाज कहते हैं कि- 'मौसम में बदलाव के बाद हमारे पास उतनी गर्मी या सर्दी में बीजाई करने के लिए एक भी बीज वैरायटी नहीं होगी। बीज कोई ऐसी चीज भी नहीं है जिसका आयात करके काम चला लिया जाए या रातों-रात कारखानों में तैयार कर लिया जाए। एक क्षेत्र विशेष के लिए मौसम के अनुकूल बीज तैयार करने में कम से कम 12-13 साल लगते हैं, इतने साल हम क्या भूखे-नंगे रहेंगे?' डॉ. भारद्वाज कहते हैं कि- 'हमारे कृषि वैज्ञानिकों को अभी से बदलते मौसम पर निगाह रखते हुए आगामी बीजों के बारे में काम करना आरम्भ कर देना चाहिए क्योंकि यह बदलाव का बहुत साफ संकेत है कि पिछेती बिजाई के लिए तैयार बीज मौसम में तबदीली की वजह से अब समय पर बीजने लायक हो गया है।'
हमारे देश में नया बीज तैयार करते समय मौसम संबंधित आंकडे और जानकारी, पानी के बारे में राय देने वाले वैज्ञानिक ही देते हैं। इस बारे में कृषि अनुसंधान के निदेशक और जल प्रबंधन वैज्ञानिक डॉ. बीएस यादव का कहना है कि-'यह खतरे की घंटी हमें भी सुनाई दे रही है, अत: वैज्ञानिकों ने इस पर काम करना आरम्भ कर दिया है। इस साल के मौसम और बरसात को देखते हुए वातावरण में बदलाव के उपयुक्त बीज तैयार करना हमारी प्राथमिकता बन गया है।' मौसम में बदलाव की वजह से पौधों में प्रभाव के बारे में क्या कदम उठाए जा रहे है के बारे में वरिष्ठ शस्य वैज्ञानिक डॉ. पीएल नेहरा का कहना है कि- 'मौसम के बदलाव को रोका नहीं जा सकता पर किसान द्वारा गहरी जुताई और गहरा पानी लगा कर नुकसान को कम जरूर किया जा सकता है।' जलवायु परिवर्तन की वजह से फसलों के होने वाले रोग और नए आने वाले कीटों का क्या असर रहेगा? के जवाब में कीट विशेषज्ञ डॉ. विचित्रसिंह का कहना है कि-'बीमारी और कीडों के बारे वैसे तो कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, पर यह तय है कि गर्मी बढ़ेगी तो इन दोनों का ही प्रकोप कम होगा और अगर बरसात हुई तो बीमारियां और कीड़े बढ़ जाएंगे। अब यह तो समय बताएगा कि किस तरह की परेशानियां उस समय आएंगी। 'इस संबंध में हनुमानगढ़ जिले की संगरिया तहसील के ढाबां गावं के प्रगतिशील किसान कृष्णकुमार जाखड़ की सलाह यह है कि 'किसान पारम्परिक बीजों का इस्तेमाल करे, क्योंकि वही प्रकृतिक रूप से इस आपदा को झेलने में सर्वाधिक सक्षम हैं।'
-प्रवीण दत्ता, जयपुर- राजस्थान ।
SIR SHANDAR..BAHAUT GYANVERDHAK AUR JANKAROYO SAI LAVERAGE LAIKH..DHANYWAD SIR..
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