नैनो कार की तरह एक लखटकिया ट्रैक्टर बाजार में आने की चर्चा समय-समय पर होती रहती है। यह खबर सुनकर खेती-बारी से जुड़े तमाम लोगों के मन में यह सवाल उठने लगता है कि क्या लाख रुपए का ट्रैक्टर किसानों को मिल सकता है? इसकी उपयोगिता और क्षमता क्या होगी? क्या इससे खेती की जरूरतें पूरी हो जाएंगी?
ट्रैक्टर निर्माताओं के मुताबिक ऐसा संभव है। इससे पहले कुछ कंपनियां सस्ता ट्रैक्टर बनाने की कौशिश कर चुकी हैं। हाल ही में गुजरात की एक अग्रणी कंपनी ने में करीब डेढ़ लाख रुपए का 15 हार्स पावर का एक ट्रैक्टर लांच किया है। उससे पहले हरियाणा की एक कंपनी 22 हार्स पावर का एक ट्रैक्टर एक लाख से कम कीमत में उतार चुकी है। इस बाजार से जुड़े लोगों की मानें तो अन्य कंपनियां भी इस मामले में गंभीर हैं। डीलरों और किसानों से ऐसे ट्रैक्टर की संभावना के बारे में राय ली जा चुकी है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि अगर सरकार, निर्माता और डीलर अपने-अपने स्तर से थोड़ी-थोड़ी रियायत करें, तो मौजूदा समय में ही लाख रुपए से कुछ ऊपर का ट्रैक्टर किसानों को आसानी से उपलब्ध हो सकता है। नई तकनीक वाले वातानुकूलित और बड़े उत्पादों को छोड़ भी दिया जाए, तो बाजार में कम से कम कीमत के उपलब्ध ट्रैक्टरों के दाम भी करीब तीन लाख रुपए है। इसमें उत्पादक को करीब 80 हजार से 1 लाख तक का लाभ होता है। करीब इतना ही विभिन्न करों के रूप में सरकार को जाता है। 15 से 25 हजार डीलर का मुनाफा होता है। अगर हर कोई अपने हिस्से में कुछ कटौती करे और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत 30-35 हार्स पावर के ट्रैक्टर पर 30 हजार रुपए का जो अनुदान देय है, उसे कम कीमत वाले ट्रैक्टरों पर भी दिया जाए, तो तीन लाख वाला ट्रैक्टर ही डेढ़ से दो लाख के बीच मिलने लगेगा। कंपनियां कम कीमत का जो नया ट्रैक्टर लांच कर रही हैं या करेंगी अगर उसमें ये सारी बातें शामिल कर दी जाएं तो लाख रुपए का ट्रैक्टर किसानों के लिए हकीकत होगा। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश में 90 प्रतिशत किसान छोटी जोत वाले हैं और उनमें भी 75 प्रतिशत की जोत तो एक हेक्टेअर से कम है। इनमें से अधिकांश की हैसियत तीन लाख या इससे ऊपर की कीमत का ट्रैक्टर खरीदने की नहीं है।
ऐसे में अधिकतर किसान किराए के ट्रैक्टर या बैल से खेती करते हैं। मौजूदा समय में बैल की एक बढिय़ा जोड़ी भी तीस से पचास हजार रुपए की है और पशु की जिंदगी कम तथा अन्य जोखिम अलग से हैं। बैल से काम लें या न लें पर खिलाना तो रोज ही पड़ता है ऐसे में लाख रुपए या इससे कुछ अधिक का ट्रैक्टर किराए के ट्रैक्टर या बैलों की जोड़ी का बेहतर विकल्प हो सकता है।
दूसरी तरफ एक अहम सवाल यह भी है कि विगत दस वर्षों में भारत में कारों की कीमत या तो वही हैं या उससे भी कम हो गई पर टैक्ट्ररों कीमतें चार से आठ गुणा तक बढ़ गई हैं और तकनीक तथा सहूलियत के हिसाब से भी उनमें कोई बदलावा नहीं आया है। इस बाबत सोनालिका टैक्ट्रर्ज के चेअरमैन एलडी मित्तल का कहना है कि कार निर्माताओं के पास पहले से ही बहुत ज्यादा मुनाफा था इसलिए कारों की कीमत गत दस सालों में स्थिर रही पर हमारे पास पहले से ही कम लाभ था और स्टील की कीमत दूगनी से ज्यादा हो गई तो रेट बढ़ाने के अलावा चारा क्या था? रही बात तकनीकी रूप से सुधार की तो बहुत सारे बदलाव टैक्ट्ररर्ज में आएं हैं जैसे-ऐवरेज बढ़ी है, सीआरडीआई इंजन तथा पावर स्टेरिंग आ गए हैं। इस विषय में जब एस्कॉर्ट लिमिटेड के मुख्य महाप्रबंधक (विक्रय) एसपी पाण्डे का तर्क वाजिब लगता है, वे कहते हैं कि- एक ट्रैक्टर बनने में काम आने वाली डाई तथा मोल्डिंग टूल उतने ही मंहगे हैं जितने एक कार बनाने में काम आने वाले औजार। लेकिन उन औजारों से बनने वाले ट्रैक्टर मात्र दो-तीन हजार बिकते हैं पर कारें दो-तीन लाख, इसलिए ट्रैक्टर की लागत बहुत ज्यादा बैठती है। वे कहते हैं कि आज देश में छोटे-बड़े मिलाकर कुल 5 लाख ट्रैक्टर बिकते हैं जबकि कार का एक मॉडल ही इतना बिक जाता है। इंडोफार्म ट्रैक्टर्ज के विक्रय और विपणन निदेशक अंशुल खडवालिया से पूछा गया तो उन्होंने विस्तार से बताया कि-इसके पीछे दो-तीन कारण है। पहला तो यह कि सरकारी नीतियां पर्यावरण के मामले में अमेरिका का अनुसरण कर रही है, जिसकी वजह से हमें यूरो-4 मानकों के तहत ट्रैक्टर बनाने पड़ रहे हैं, जबकि अन्य विकासशील देशों में यहां तक कि चीन में भी यूरो-3 मानक पर ही ट्रैक्टर बन रहे हैं। इसी बात का दूसरा पहलू यह भी है कि हम तो यूरो-4 मानकों में ट्रैक्टर बना रहे हैं जबकि देश में अभी तक बिना यूरो मानक के ट्रैक्टर दौड़ रहे हैं।
सरकार देश की स्थितियों को देखते हुए व्यवहारिक नीयम नहीं बनाती जिसकी वजह से हमें बदलाव के लिए शोध तथा विकास पर बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है, इस वजह से प्रति वर्ष ट्रैक्टर 4 से 5 प्रतिशत तक मंहगा हो जाता है। मूल्य वृद्धि का दूसरा कारण है स्टील, रबर और लेबर का मंहगा होना, विगत दस वर्षों में ये तीनों वस्तुएं ढाई से तीन गुना तक मंहगी हुई हैं।
ऐसे में अधिकतर किसान किराए के ट्रैक्टर या बैल से खेती करते हैं। मौजूदा समय में बैल की एक बढिय़ा जोड़ी भी तीस से पचास हजार रुपए की है और पशु की जिंदगी कम तथा अन्य जोखिम अलग से हैं। बैल से काम लें या न लें पर खिलाना तो रोज ही पड़ता है ऐसे में लाख रुपए या इससे कुछ अधिक का ट्रैक्टर किराए के ट्रैक्टर या बैलों की जोड़ी का बेहतर विकल्प हो सकता है।
दूसरी तरफ एक अहम सवाल यह भी है कि विगत दस वर्षों में भारत में कारों की कीमत या तो वही हैं या उससे भी कम हो गई पर टैक्ट्ररों कीमतें चार से आठ गुणा तक बढ़ गई हैं और तकनीक तथा सहूलियत के हिसाब से भी उनमें कोई बदलावा नहीं आया है। इस बाबत सोनालिका टैक्ट्रर्ज के चेअरमैन एलडी मित्तल का कहना है कि कार निर्माताओं के पास पहले से ही बहुत ज्यादा मुनाफा था इसलिए कारों की कीमत गत दस सालों में स्थिर रही पर हमारे पास पहले से ही कम लाभ था और स्टील की कीमत दूगनी से ज्यादा हो गई तो रेट बढ़ाने के अलावा चारा क्या था? रही बात तकनीकी रूप से सुधार की तो बहुत सारे बदलाव टैक्ट्ररर्ज में आएं हैं जैसे-ऐवरेज बढ़ी है, सीआरडीआई इंजन तथा पावर स्टेरिंग आ गए हैं। इस विषय में जब एस्कॉर्ट लिमिटेड के मुख्य महाप्रबंधक (विक्रय) एसपी पाण्डे का तर्क वाजिब लगता है, वे कहते हैं कि- एक ट्रैक्टर बनने में काम आने वाली डाई तथा मोल्डिंग टूल उतने ही मंहगे हैं जितने एक कार बनाने में काम आने वाले औजार। लेकिन उन औजारों से बनने वाले ट्रैक्टर मात्र दो-तीन हजार बिकते हैं पर कारें दो-तीन लाख, इसलिए ट्रैक्टर की लागत बहुत ज्यादा बैठती है। वे कहते हैं कि आज देश में छोटे-बड़े मिलाकर कुल 5 लाख ट्रैक्टर बिकते हैं जबकि कार का एक मॉडल ही इतना बिक जाता है। इंडोफार्म ट्रैक्टर्ज के विक्रय और विपणन निदेशक अंशुल खडवालिया से पूछा गया तो उन्होंने विस्तार से बताया कि-इसके पीछे दो-तीन कारण है। पहला तो यह कि सरकारी नीतियां पर्यावरण के मामले में अमेरिका का अनुसरण कर रही है, जिसकी वजह से हमें यूरो-4 मानकों के तहत ट्रैक्टर बनाने पड़ रहे हैं, जबकि अन्य विकासशील देशों में यहां तक कि चीन में भी यूरो-3 मानक पर ही ट्रैक्टर बन रहे हैं। इसी बात का दूसरा पहलू यह भी है कि हम तो यूरो-4 मानकों में ट्रैक्टर बना रहे हैं जबकि देश में अभी तक बिना यूरो मानक के ट्रैक्टर दौड़ रहे हैं।
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